नही रहा अब पहले जैसा
सुन्दर सुघर सलोना
वह झरनों का झरना
कल कल बहती नदिया
और कोयल का कुकना
नही रहा अब पहले जैसा
सुन्दर सुघर सलोना
मेरा बचपन कल का खेल खिलौना
कभी झाडियों मी छुप इधर उधर मडराना
कभी खेतो की मेढो पर मटर की फलिया खाना
गहू की वे बाले यू हवा मी लहराना
नही रहा अब पहले जैसा
सुन्दर सुघर सलोना
गाव कि गोरी जाती पनघट
कुछ कूए पर बैठी करती खटपट
कही दूर बैलो कि घंटी
बजती जैसे दुल्हन की पायल
तरूनो को उसकी आवाजे
विरहन सी करती घायल
नही रहा अब पहले जैसा
सुन्दर सुघर सलोना
नीम डाल पर लगा हिडोला युवती गाना गाती
भोला बैठा उच् मचान उसकी बंसी मधुर है बजती
राम राम कह लाला जी धन का ऐठ दिखाते
नही रहा अब पहले जैसा
सुन्दर सुघर सलोना
गाव के मुखिया वंसी काका दया धरम की मूरत
जैसा उनका सबसे प्रेम भाव उतनी सुंदर शिरत
रोज सवेरे उठ कर भैया अखाडे मे है जाते
उतर कमीज खुटी पर दो सौ दंड लगाते
नही रहा अब पहले जैसा
सुन्दर सुघर सलोना
मिट्टी की खुशबू सोंधी सोंधी देती हमको सोना
नही रहा अब पहले जैसा यही तो है अब रोना
प्रेम भाव और भाई चारा लगता है अब सपना
हर गली मोहल्ला मी अब मारा मरी पड़ता है अब सुनना
नही रहा अब पहले जैसा
सुन्दर सुघर सलोना
2 comments:
बहुत ही सुंदर कविता। लय-ताल कुछ ऐसी कि बचपन चलकर सामने आ गया हो। बचपन की यादें ताजा कर गईं। शुक्रिया।
बहुत उम्दा,बधाई.
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