हम अपने देर रात घुमने की आदतों से मजबूर थे। कल हम अपने उसी बुरी आदत के कारण रात को घर से बहार आये। उस समय लगभग २ बज रहे होंगे और हम लोग धीरे धीरे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थानकी ओर बढ़ने लगे क्योकि हमें तो आदत थी देर रात घर से बाहर निकल कर दिल्ली की सडको के किनारे बने खोको की चाय पीने की । आज हम फिर निकल पड़े थे अपनी पुरानी आदत को दोहराने केलिए दिल्ली की उन्ही सड़कों पर जहा हम दोस्त बैठ कर चाय पिया करते थे।
रात घनी थी लेकिन रोडोंके किनारे लगे स्ट्रीट लाइट में अँधेरा कुछ और ही बया कर रहा था । इस वक़्त सभी लोग अपने घरों में चैन की नीद सो रहे थे, दिल्ली सुरक्षाबल अपनी चौकसी बरती हुई थीऔर हम अपनी आदत दुहरा रहे थे गाडिया अपने रस्ते पर तेजी लिए दौड़ रही थी इसी बीच हमारी नज़र पड़ी एक नन्हे सी जन पर जिसका उम्र लगभग १५ महीने रहा होगा, वो रोता हुआ आधी रात में चला जा रहा था , कौन था वह नन्हा ?ना उसे कुछ पता ना हमें , उस वक़्त वह यही सोच रहा होगा "तुम कौन और मै कहा"
वह नन्ही सी जान अपने माता पिता से अंजन रोता हुआ सीधे चला जारहा था , न जाने कही जाने की ललक सी थी या अपने माता पिता को ढूढ़ रहा था, उसके माता पिता अंजन बन कर बेफिक्र गहरी नीद में सो रहे थे हम दोस्तों ने मौके का जायजा लिया तो पता चला कि उस नन्ही सी जान से लगभग ५०० मीटर दूर उसके माता पिता गहरी नीद में सो रहे थे हमने उन्हें जगाया और बच्चा उन्हें सौप दिया, और उनसे कहा कि एस बच्चे को तुम्हारी तुम्हारे नीद से ज्यादा जरुरत है
यह कह कर हम अपने रस्ते पर निकल गये .............................................
4 comments:
चलिए रात को घूमना बेकार नहीं गया। पर ध्यान रखिएगा वक्त बुरा हो तो कोई आपको बच्चा उठाने वाला भी समझ सकता था। पुलिसवालों का भरोसा नहीं।
उस बच्चे की भी तकदीर अच्छी थी , वह आपके हाथ ही पड़ा, किन्ही गलत हाथों में नहीं।
कौन सी आदात कब सार्थक सिद्ध हो जाये-बहुत उम्दा उदाहरण रहा उसका. साधुवाद.
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