Friday, April 24, 2009

जो छूट गया याद आता है

गर्मियों के छुट्टी का किसे इंतजार नही रहता , मैभी छुट्टियों का इंतजार कर रहा था। की कब छुट्टी मिले और गाव भाग जाऊ
आख़िर वो दिन पास आही गये थे, जब छुट्टिया होने वाली थी , ये देख कर मैंने पॉँच दिन पहले ही ट्रेन का टिकेट कटवा लिया था।
और जाने के तारीख का इंतजार कर रहा था। जिस दिन से मैंने टिकेट कटवाया उस दिन से मेरे लिए बाकि के दिन को काटना दुस्वार होगया
था। ऐसा लग रहा था मनो समय थम सा गया हो । कैसे - - - कैसे कर के मैंने वो पाच दिन काटे वो तो मैही जनता हूँ ।
जाने का दिन आगया था सुबह ४बज़े की ट्रेन थी और मै रात से ही तैयारी में लग गया था। उस दिन मुझे बहुत मज़ा आरहा था, लगरहा था की मै स्वर्ग जाने की तैयारी कर रहा हूँ । सच बताऊ वो रात नजाने कैसे कट गई ३.३० कैसे हो गये पता ही नही चला , जैसे ही मेरी नज़र घड़ी पर पड़ी मै उछल पड़ा और ज़ल्दी से स्टेशन की ओर निकल पडा, २० मिनट में ही गौतम नगर से नई दिल्ली स्टेशन पर पहुच गया।
रेलवे स्टेशन पर तो मै कई बार जाता रहता हूँ लेकिन उस दिन तो मुझे ऐसा लग रहा था की ये मै कहा आगया खुसी के मारे मेरी छाती फूली नही समां रही थी । अचानक सन्नाटे से एक आवाज आई जम्मू से चल कर रांची ,टाटा हटिया को जाने वाली मुरी एक्सप्रेस प्लेटफोर्म ३ पर खड़ी है। ये सुन कर मै हील सा गया क्यो की यही मेरी ट्रेन थी और अभी मै प्लेटफॉर्म १ पर था । मै जल्दी से भगा , मुझे अपना कोच भी खोजना था । जल्दी से मै उस पार पंहुचा और अपना डिब्बा खोजने लगा लगभग बीस डब्बोंके बाद मेरा डब्बा आया , उसपर चिपका अपना नाम देख कर मेरे जी में जी आया और मैंने रहत की ससली । ट्रेन के चलने का सायरन बजा तब मै ट्रेन पार चढ़ कर आपने सिट पार बैठ गया ।
उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले सोनभद्र में मेरा गाव पड़ता है जिसका नाम चंदुआर है। जो चारो ओर से छोटी छोटी पहाडियों से घिरा है। गाव में कोई स्टेशन ना होने के वजह से तिस किलोमीटर पहले ही रेनुकूट में उतरना पड़ता है ।
दिल्ली से रेनुकूट की दुरी लगभग ९०० किलोमीटर है। इस लिए मुझे वहा पहुचाने में अठारह घंटे लग गये।
जब मै अपने गाव के स्टेशन पार पंहुचा तो रात के दो बज गये थे । चारो तरफ़ सन्नाटा छाया हुवा था थोडी थोडी दुधिया रोशनी
छलक रही थी।
चारो तरफ़ से झींगुरों के करकराने की आवाज गुज रही थी, लग रहा था जैसे स्वागत कर रहे हो
मै स्टेशन से निकल कर बस स्टाप की ओर जाने लगा रास्ता पुरा सुना पड़ा हुवा था । चाँद अपने चादनी को बिखेर रहा था।
बस वही कुछ लोग नज़र आ रहे थे जो मेरे साथ ट्रेन से उतरे थे । और हम सभी वही बस स्टाप पार बैठे बस का इंतजार कर रहे थे। कुछी देर मेंवहा यु० पि ० रोडवेज की बस आरुकी और मै उस पर चढ़ गया और बस गाव कि ओर रवाना हो गयी रिहंदबांध को पार करके बस अभी जंगलो के रस्ते जारही थी, एक पहाड़ी के बाद दूसरी पहाड़ी को पार करती जा रही थी. दोनों तरफ घने उचे पेड़ और उनके बीचो बिच से निकले रास्ते पर बस चल रही थी. चारो तरफ अंधेरिया घिट्की हुईथी. मात्र बस के हेड लाइट कि रोशनी दिख रही थी जो कुछ खास एरिया को ही रोशनी से सिच रही थी. बस के एक घंटे सफ़र के बाद मै अपने गाव के बस स्टाप पर उतरा और उतरने के बाद अपने घर कि ओर बढ़ने लगा उस वक़्त लगभग चार बज रहे होंगे मै सटपट सटपट कंधे पर बैग लटकाए घर कि ओर ही बढ़ता जा रहा था दस मिनट के पैदल यात्रा को करके मै आपने दरवाजे पर पहुँच गया था. और घर के दरवाज़े को खट खटखटा रहा था और बार बार खट खटाए जारहा था. धीरे धीरे दरवाजे कि खटखटाने कि आवाज बढाती गयी अचानक बहुत तेज़ दरवाज़े कि आवाज़ आई और मेरी नींद खुल गयी देखा कि सुबह के सात बजे है मै दिल्ली वाले फ्लैट पर ही सोया हूँ और कोई दोस्त दरवाज़ा जोर जोर से बजा रहा है और मेरा नाम भी पुकार रहा है. ये सब जान कर कि मै सपना देख रहा था मुझे बहुत दुःख हुवा
मै जल्दी से उठकर दरवाज़ा खोला तो दोस्त ने दो बाते भला बुरा कही मैंने एक कान से सुना और एक कान से निकाल दिया और उसे अन्दर कमरे में बुलालिया फिर हमारी ऐसे ही रोज़ मर्राके कि बाते होने लगी ..............................

1 comment:

रवि रतलामी said...

दोस्त, आप इस सपने को हक़ीक़त में बदल सकते हैं. चार दिन की छुट्टी लीजिए, यात्रा प्लान कीजिए, और हो आइए पहाड़ों पर से.
यात्रा की अग्रिम शुभकामनाएँ :)